स्त्री और पुरुष का के बीच लैंगिक अंतर तो प्रकृति की अनुपम दैन है! इसको स्त्री की कमजोरी और पुरुष की ताकत समझना, पुरुष की सबसे बड़ी मूर्खता है और इसे अपनी कमजोरी मानकर, इसे छुपाने के लिए स्त्री द्वारा पुरुषोचित व्यवहार या आचरण करना उससे भी बड़ी मूर्खता है।
केवल भारत में ही नहीं, बल्कि सारे विश्व में हमारे पुरुष प्रधान समाज की कुछ मूलभूत समस्याएँ हैं। भारत में हजारों सालों से अमानवीय मनुवादी कुव्यवस्था के चंगुल में रही है। जिसमें स्त्री की मानवीय संवेदनाओं तक को क्रूरता से कुचला जाता रहा है। ऎसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में स्त्री और पुरुष के बीच भारत में अनेक प्रकार की वैचारिक, सामाजिक और व्यवहारगत समस्याएं विशेष रूप से देखने को मिलती हैं। जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं:-
1-पुरुष का स्त्री के प्रति हीनता का विचार और स्त्री को परुष से कमतर मानने का अहंकारी सोच।
2-पुरुष का स्त्री के प्रति पूर्वाग्रही और रुग्णता पर आधारित स्वनिर्मित अवधारणाएं।
3-स्त्री द्वारा स्त्री को प्रकृति प्रदत्त अनुपम उपहार स्त्रीत्व और प्रजनन को स्त्री जाति की कमजोरी समझने का असंगत, किन्तु संस्कारगत विचार।
4-स्त्री का पुरुष द्वारा निर्मित धारणाओं के अनुसार खुद का, खुद को कमतर आकलन करने का संकीर्ण, किन्तु संस्कारगत नजरिया।
5-इसी के साथ-साथ स्त्री का खुद को पुरुष की बराबरी करने का अव्यावहारिक और असंगत विचार भी बड़ी समस्या है, क्योंकि न पुरुष स्त्री की बराबरी कर सकता है और न ही स्त्री पुरुष की बराबरी कर सकती है।
6-स्त्री को पुरुष की या पुरुष को स्त्री की बराबरी करने की जरूरत भी नहीं होनी चाहिए। बराबरी करने की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि दोनों अपने आप में अनूठे हैं और दोनों एक दूसरे के बिना अ-पूर्ण हैं।
7-स्त्री और पुरुष की पूर्णता आपसी प्रतिस्पर्धा या एक दूसरे को कमतर या श्रेष्ठतर समझने में नहीं, बल्कि सम्मानजनक मिलन, सहयोग और सहजीवन में ही है।
8-एक स्त्री का स्त्रैण और पुरुष का पौरुष दोनों में प्रकृतिदत्त अनूठा और विपरीतगामी स्वभावगत अद्वितीय गौरव है।
9-स्त्री और पुरुष दोनों में बराबरी की बात सोचना ही बेमानी हैं। दोनों प्रकृति ने ही भिन्न बनाये हैं, लेकिन इसका अर्थ किसी का किसी से कमतर या हीनतर या उच्चतर या श्रेष्ठतर का विचार अन्याय पूर्ण है। दोनों अनुपम हैं, दोनों अनूठे हैं।
10-स्त्री और पुरुष की सोचने और समझे की मानसिक और स्वभावगत प्रक्रिया और आदतें भी भिन्न है।
11-यद्यपि पुरुष का दिमांग स्त्री के दिमांग से दस फीसदी बड़ा होता है, लेकिन पुरुष के दिमांग का केवल एक बायाँ (आधा) हिस्सा ही काम करता है। जबकि स्त्री के दिमांग के दोनों हिस्से बराबर और लगातार काम करते रहते हैं। इसीलिए तुलनात्मक रूप से स्त्री अधिक संवेदनशील होती हैं और पुरुष कम संवेदनशील! स्त्रियों को "बात-बात पर रोने वाली" और "मर्द रोता नहीं" जैसी सोच भी इसी भिन्नता का अनुभवजन्य परिणाम है। बावजूद इसके पुरुष और खुद स्त्रियाँ भी, स्त्री को कम बुद्धिमान मानने की भ्रांत धारणा से ग्रस्त हैं।
12-यदि बिना पूर्वाग्रह के अवलोकन और शोधन किया जाये तो स्त्री और पुरुष की प्रकृतिगत वैचारिक और बौद्धिक भिन्नता उनके दैनिक जीवन के व्यवहार और आचरण में आसानी से देखी-समझी जा सकती है।
कुछ उदाहरण-
- (1) स्त्रियों को ऐसे मर्द पसंद होते हैं, जो खुलकर सभी संवेदनशील परेशानी और बातें स्त्री से कहने में संकोच नहीं करें, जबकि इसके ठीक विपरीत पुरुष खुद तो अपनी संवेदनाओं को व्यक्त नहीं करना चाहते और साथ ही वे कतई भी नहीं चाहते कि स्त्रियाँ अपनी संवेदनाओं (जिन्हें पुरुष समस्या मानते हैं) में पुरुषों को उलझाएँ।
- (1) स्त्री के साथ, पुरुष की प्रथम प्राथमिकता प्यार नहीं, स्त्री को सम्पूर्णता से पाना है। स्त्री को हमेशा के लिए अपने वश में, अपने नियंत्रण में और अपने काबू में करना एवं रखना है। प्यार पुरुष के लिए द्वितीयक (बल्कि गौण) विषय है। आदिकाल से पुरुष स्त्री को अपनी निजी अर्जित संपत्ति समझता रहा है, (इस बात की पुष्टि भारतीय दंड संहिता की धारा 497 से भी होती है, जिसमें स्त्री को पुरुष की निजी संपत्ति माना गया गया है), जबकि स्त्री की पहली प्राथमिकता पुरुष पर काबू करने के बजाय, पुरुष का असीमित प्यार पाना है (जो बहुत कम को नसीब होता है) और पुरुष से निश्छल प्यार करना है। अपने पति या प्रेमी को काबू करना स्त्री भी चाहती है, लेकिन ये स्त्री की पहली नहीं, अंतिम आकांक्षा है। यह स्त्री की दृष्टि में उसके प्यार का स्वाभाविक प्रतिफल है।
- (3) विश्वभर के मानव व्यवहार शास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि स्त्री प्यार में ठगी जाने के कुछ समय बाद फिर से खुद को संभालने में सक्षम हो जाती हैं, जबकि पुरुषों के लिए यह बहुत असम्भव या बहुत ही मुश्किल होता है। (इस विचार से अनेक पाठक असहमत हो सकते हैं, मगर अनेकों बार किये गए शोध, हर बार इस निष्कर्ष की पुष्टि करते रहे हैं।)
- (4) पुरुष अनेक महत्वपूर्ण दिन और तारीखों को (जैसे पत्नी का जन्म दिन, विवाह की वर्ष गाँठ आदि) भूल जाते हैं और पुरुष इन्हें साधारण भूल मानकर इनकी अनदेखी करते रहते हैं, जबकि स्त्रियों के लिए हर छोटी बात, दिन और तारीख को याद रखना आसान होता है। साथ ही ऐसे दिन और तरीखों को पुरुष (पति या प्रेमी) द्वारा भूल जाना स्त्री (पत्नी या प्रेमिका) के लिए अत्यंत असहनीय और पीड़ादायक होता है। जो पारिवारिक कलह और विघटन के कारण भी बन जाते हैं।
- (5) स्त्रियाँ चाहती हैं कि उनके साथ चलने वाला उनका पति या प्रेमी, अन्य किसी भी स्त्री को नहीं देखे, जबकि राह चलता पुरुष अपनी पत्नी या प्रेमिका के आलावा सारी स्त्रियों को देखना चाहता है। यही नहीं स्त्रियाँ भी यही चाहती हैं कि राह चलते समय हर मर्द की नजर उन्हीं पर आकर टिक जाये। स्त्रियाँ खुद भी कनखियों से रास्तेभर उनकी ओर देखने वाले हर मर्द को देखती हुई चलती हैं, मगर स्त्री के साथ चलने वाले पति या प्रेमी को इसका आभास तक नहीं हो पाता।
13-कालांतर में समाज ने स्त्री और पुरुष दोनों के समाजीकरण (लालन-पालन-व्यवहार और कार्य विभाजन) में जो प्रथक्करण किया गया, वास्तव में वही आज के समय की बड़ी मुसीबत है और इससे भी बड़ी मुसीबत है, स्त्री का आँख बंद करके पुरुष की बराबरी करने की मूर्खतापूर्ण लालसा! गहराई में जाकर समझें तो यह केवल लालसा नहीं, बल्कि पुरुष जैसी दिखने की उसकी हजारों सालों से दमित रुग्ण आकांक्षा है! क्योंकि हजारों सालों से स्त्री पुरुष पर निर्भर रही है, बल्कि पुरुष की गुलाम जैसी ही रही है। इसलिए वह पुरुष जैसी दिखकर पुरुष पर निर्भरता से मुक्ति पाने की मानसिक आकांक्षी होने का प्रदर्शन करती रहती है।
14-एक स्त्री जब अपने आप में प्रकृति की पूर्ण कृति है तो उसे अपने नैसर्गिक स्त्रैण गुणों को दबाकर या छिपाकर या कुचलकर पुरुष जैसे बनने या दिखने या दिखाने का असफल प्रयास करके की क्या जरूरत है? इस तथ्य पर विचार किये बिना, स्त्री के लिए अपने स्त्रैणत्व के गौरव की रक्षा करना असंभव है।
15-बेशक जेनेटिक कारण भी स्त्री और पुरुष दोनों को जन्म से मानसिक रूप से भिन्न बनाते हैं। लेकिन स्त्री और पुरुष प्राकृतिक रूप से अ-समान होकर भी एक-दूसरे से कमतर या उच्चतर व्यक्तित्व नहीं, बल्कि एक दूसरे के सम्पूर्णता से पूरक हैं। स्त्रैण और पौरुष दोनों के अनूठे और मौलिक गुण हैं।
16-हम शनै-शनै समाजीकरण की प्रक्रिया में कुछ बदलाव अवश्य ला सकते हैं। यदि इसे हम आज शुरू करते हैं तो असर दिखने में सदियाँ लगेंगी। मगर बदलाव स्त्री या पुरुष की निजी महत्वाकांक्षा या जरूरत पूरी करने के लिए नहीं, बल्कि दोनों के जीवन की जीवन्तता को जिन्दादिल बनाये रखने के लिए होने चाहिए।
17-समाज शास्त्रियों या समाज सुधारकों या स्त्री सशक्तिकरण के समर्थकों या पुरुष विरोधियों की दृष्टि में कुछ सामाजिक सुधारों की तार्किक जरूरत सिद्ध की जा सकती है। लेकिन कानून बनाकर या सामाजिक निर्णयों को थोपकर इच्छित परिणाम नहीं मिल सकते। बदलाव तब ही स्वागत योग्य और परिणामदायी समझे जा सकते हैं, जबकि हम उन्हें स्त्री-पुरुष के मानसिक और सामाजिक द्वंद्व से निकलकर, एक इन्सान के रूप में सहजता और सरलता से आत्मसात और अंगीकार करके जीने में फक्र अनुभव करें।
18-अंत में यही कहा जा सकता है कि स्त्री और पुरुष का के बीच लैंगिक अंतर तो प्रकृति की अनुपम दैन है! इसको स्त्री की कमजोरी और पुरुष की ताकत समझना, पुरुष की सबसे बड़ी मूर्खता है और इसे अपनी कमजोरी मानकर, इसे छुपाने के लिए स्त्री द्वारा पुरुषोचित व्यवहार या आचरण करना उससे भी बड़ी मूर्खता है।
-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'-098750-66111
अच्छी पोस्ट।
ReplyDeleteaap itni achi post kase likh lete ho sir My BLog
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