: शॉर्ट नाट्स :
1. 'निर्गुडति शरीर रक्षति रोगेभ्यः तस्माद् निर्गुण्डी' अर्थात् जो रोगों से शरीर की रक्षा करती है, वह निर्गुण्डी कहलाती है।
2. जिन पत्तियों में पाँच पत्रक होते हैं, उनमें सबसे नीचे जोड़े वाले पत्रक सबसे छोटे तथा पाँचवा पत्रक सबसे बड़ा होता है।
3. पत्तों को मसलने से एक विशिष्ट प्रकार की तीव्र अप्रिय गंध निकलती है।
4. निर्गुण्डी चूँकि जंगली पौधा है व इससे मिलती-जुलती कई प्रजातियाँ भी हैं। मिलावट इसमें काफी अधिक होती है।
5. निर्गुण्डी गुल्म के कवच पर अनेक जाति के रोगाणु आक्रमण कर सकते हैं। पत्तियाँ भी बहुधा रोग ग्रस्त होती हैं। प्रयोग के पूर्व यह परीक्षा अनिवार्य है कि पौधा रोग रहित है अथवा नहीं।
6. औषधीय उद्देश्यों के लिए मार्च में इसके पुष्पित होने से पूर्व पत्तियों को एकत्र करना चाहिए, क्योंकि इस अवधि में पत्तियों में तेल की मात्रा सर्वाधिक होती है। अन्य किसी समय में एकत्र किए गए अंग गुणों की दृष्टि से हीन होते हैं। इसका प्रयोग एक वर्ष तक किया जा सकता है।
7. वेदना शामक और मज्जा तंतुओं को शक्ति देने वाली है। सूजन नष्ट करने वाला इसका गुण जो विशेषकर अन्तर्कोशीय स्तर पर प्रभावी होता है, अपने आप में विशिष्ट है। यह वात नाशक व जोड़ों के दर्द को, जो ऋतुक्रम के अनुसार बढ़ते घटते रहते हैं, मिटाने वाली एक कारगर औषधि है। संधिशोध में चाहे उनका कारण जीवाणु हो या वार्धक्य, यह तुरंत लाभ पहुँचाती है। वैसे तो आर्युवेद में सूजन उतारने वाली कई औषधियों का वर्णन मिलता है, पर निर्गुण्डी इन सब में अग्रणी है एवं सर्वसुलभ भी। इसके अतिरिक्त तंतुओं को चोट पहुँचाने, मोच आदि के कारण आई मांसपेशियों की सूजन में भी यह लाभ पहुँचाती है।
8. यह औषधि नाड़ी मण्डल के अवसाद को दूर कर उन्हें उत्तेजित करती है।
9. बाहरी स्नायु संस्थान, प्लेक्स, रुट्स व नस तंतुओं में विद्युत प्रवाह बढ़ाकर यह उन्हें उत्तेजित करती है। इसी कारण इसे सिर दर्द विशेषकर ट्राइजेमिनलन्यूरेल्जिया तथा सियाटिका जैसे रोगों में विशेष लाभकारी पाया गया है।
10. इस पौधे की ताजी पत्तियों में प्रति सौ ग्राम 150 मिलीग्राम विटामिन सी और 3500 माइक्रोग्राम कैरोटीन होते हैं।
11. वैज्ञानिक प्रयोगों में यह पाया गया है कि निर्गुण्डी पत्रों का क्वाथ प्रायोगिक जंतुओं के जोड़ों में कृत्रिम रूप से उत्पन्न की गई सूजन (गठिया) की प्रगति रोककर यथास्थिति लाता है। फलों का चूर्ण भी दर्द निवारक पाया गया है। इसके बाह्य तथा आंतरिक प्रयोगों से पाया है कि यह नाड़ी तंतु जाल को सशक्त बनाता है, अपने वेदना निवारक गुण से मांस पेशियों, नाड़ियों तथा संधियों के दर्द को मिटाता है।
12. मात्रा-पत्र स्वरस-10 से 20 ग्राम (2 से 4 चम्मच)। मूल की छाल का चूर्ण-1 से 3 ग्राम। बीज चूर्ण अथवा फल चूर्ण-3 से 6 ग्राम।
13. वात से सम्बंधित बीमारियों में रामबाण औषधी माना जाता है।
14. शरीर के किसी भी हिस्से में होनेवाली गांठ जो प्राय: बंद हो तो केवल इसके पत्तों को बांधने से बंद गाँठ खुल जाती है और अन्दर स्थित मवाद बाहर आ जाता है।
15. यह घाव को विसंक्रमित करने और भरनेवाले गुणों से युक्त होता है।
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र्निगुण्डी (वाइटेक्स र्निगुण्डी)
'निर्गुडति शरीर रक्षति रोगेभ्यः तस्माद् निर्गुण्डी' अर्थात् जो रोगों से शरीर की रक्षा करती है, वह निर्गुण्डी कहलाती है । इसे सम्हालू या मेऊड़ी भी कहते हैं ।
वानस्पति परिचय : सारे भारत में इसके स्वयं जात पौधे मिलते हैं। विशेषकर भारत के उष्ण भाग में यह अधिक संख्या में पाया जाता है तथा इसे किसान खेत की मेड़ में भी लगाते हैं। यह झुण्डों में पाया जाता है एवं सड़कों के किनारे उत्तरी एवं मध्य भारत में बहुधा देखा जाता है।
इसके गुल्म बड़े 6 से 12 फीट ऊँचे झाड़ीदार होते हैं। सारे गुल्म पर सूक्ष्म रोम होते हैं। काण्ड स्थूल फैली हुई शाखाओं से युक्त होती है। छाल पतली, चिकनी, नीलाभ वर्ण की होती है। पत्तियों का वृत्त 3 से 5 पत्रों का होता है। अरहर सदृश्य दिखाई देती है, परन्तु अधिक लंबी, रोम युक्त खण्डित अथवा भालाकार होती हैं। ये 2 से 6 इंच लंबी तथा लगभग तीन चौथाई इंच चौड़ी होती हैं। पत्तियों का डण्ठल लंबा होता है। पत्तियाँ सरल व कभी-कभी गोल क्रम में लगी होती हैं। जिन पत्तियों में पाँच पत्रक होते हैं, उनमें सबसे नीचे जोड़े वाले पत्रक सबसे छोटे तथा पाँचवा पत्रक सबसे बड़ा होता है। पत्तों को मसलने से एक विशिष्ट प्रकार की तीव्र अप्रिय गंध निकलती है। पुष्प छोटे-छोटे नीलाभ या बैंगनी आभा लिए सफेद 2 से 6 इंच लंबी मंजरियों में होते हैं।
फल छोटे-गोल, एक चौथाई इंच व्यास के होते हैं तथा पकने पर काले हो जाते हैं। बीज काली मिर्च जैसे कुछ छोटे पर रंग में सफेद काले मिश्रित होते हैं। बीज, पत्ते व जड़ औषधि की दृष्टि से प्रयुक्त होते हैं। जड़ जो सामान्य तथा पंसारियों के पास उपलब्ध रहती है, लंबे वक्राकार टुकड़ों के रूप में मिलती है। इन टुकड़ों पर भी छोटी-छोटी जड़ें होती हैं। छाल हरे रंग की तथा अंदर की लकड़ी पीले रंग की होती है। देहरादून क्षेत्र की ओर एक और प्रकार की निर्गुण्डी पाई जाती है, जिसमें बाह्य स्वरूप व औषधीय गुण तो वही होते हैं, परन्तु पत्ती, मंजरी, पुष्प व फल सभी छोटे होते हैं।
मिलावट तथा पहचान : निर्गुण्डी चूँकि जंगली पौधा है व इससे मिलती-जुलती कई प्रजातियाँ भी हैं। मिलावट इसमें काफी अधिक होती है। निर्गुण्डी के बीजों में प्रायः वायविडंग और रेणुका (वायटेक्स एक्नस) के बीज सम्मिलित रहते हैं ।
प्रसिद्ध वनस्पति शास्री डॉ. ड्यूथी के अनुसार निर्गुण्डी से ही मिलता-जुलता पौधा है-वायटैक्स ट्राइफोलिया इसके पत्ते सादे 1 से 3 पत्र युक्त होते हैं, खण्डित नहीं होते एवं फल-फूल सामान्य औषधीय गुण प्रधान पौधे के फल-फूलों से काफी अधिक बड़े होते हैं। इसे अक्सर सफेद सम्हालू या पानी का संभालू नाम से जाना जाता है।
निर्गुण्डी गुल्म के कवच पर अनेक जाति के रोगाणु आक्रमण कर सकते हैं। पत्तियाँ भी बहुधा रोग ग्रस्त होती हैं। प्रयोग के पूर्व यह परीक्षा अनिवार्य है कि पौधा रोग रहित है अथवा नहीं।
संग्रह संरक्षण : औषधीय उद्देश्यों के लिए मार्च में इसके पुष्पित होने से पूर्व पत्तियों को एकत्र करना चाहिए, क्योंकि इस अवधि में पत्तियों में तेल की मात्रा सर्वाधिक होती है। अन्य किसी समय में एकत्र किए गए अंग गुणों की दृष्टि से हीन होते हैं।
वर्षाकाल में भी निर्गुण्डी के पुराने पेड़ों के नीचे नूतन अंकुर फूटा करते हैं। इस अवधि के बाद वर्षाकाल समापन पर कार्तिक मास में नूतन अंकुरों से उत्पन्न पौधों के नीचे उपलब्ध हल्दी सदृश कंदों को लेना विशेष हितकर है। उपयोगी अंगों का उपयुक्त काल में संग्रह कर मुख बंद पात्रों में उन्हें शीतल सूखे स्थान पर रखा जाता है। इसका प्रयोग एक वर्ष तक किया जा सकता है।
गुण-कर्म संबंधी विभिन्न मत :
आचार्य चरक इसे विषहर वर्ग की एक महत्त्वपूर्ण औषधि मानते हैं। निर्गुण्डी आधुनिक काल के वैद्यों के अनुसार किसी भी प्रकार की बाहरी या भीतरी सूजन के लिए प्रयुक्त की जाती है। शोथ में भी इसके पत्तों का स्वरस अथवा मूल या पत्रों का काढ़ा दिया जाता है तथा ताजे पत्तों का लेप स्थानीय उपचार के रूप में किया जाता है।
श्री भण्डारी के अनुसार यह औषधि वेदना शामक और मज्जा तंतुओं को शक्ति देने वाली है। सूजन नष्ट करने वाला इसका गुण जो विशेषकर अन्तर्कोशीय स्तर पर प्रभावी होता है, अपने आप में विशिष्ट है। यह वात नाशक व जोड़ों के दर्द को, जो ऋतुक्रम के अनुसार बढ़ते घटते रहते हैं, मिटाने वाली एक कारगर औषधि है। संधिशोध में चाहे उनका कारण जीवाणु हो या वार्धक्य, यह तुरंत लाभ पहुँचाती है। वैसे तो आर्युवेद में सूजन उतारने वाली कई औषधियों का वर्णन मिलता है, पर निर्गुण्डी इन सब में अग्रणी है एवं सर्वसुलभ भी। इसके अतिरिक्त तंतुओं को चोट पहुँचाने, मोच आदि के कारण आई मांसपेशियों की सूजन में भी यह लाभ पहुँचाती है। अधिक चलने या श्रम करने से मांसपेशियों को हुई थकान में यह तुरंत लाभकारी है। इसका कारण बताते हुए डॉ. नादकर्णी कहते हैं यह औषधि नाड़ी मण्डल के अवसाद को दूर कर उन्हें उत्तेजित करती है।
बाहरी स्नायु संस्थान, प्लेक्स, रुट्स व नस तंतुओं में विद्युत्प्रवाह बढ़ाकर यह उन्हें उत्तेजित करती है इसी कारण इसे सिर दर्द विशेषकर ट्राइजेमिनलन्यूरेल्जिया तथा सियाटिका जैसे रोगों में विशेष लाभकारी पाया गया है।
श्री चोपड़ा ग्लौसरी ऑफ इण्डियन मैडीसिनल प्लाण्ट्स पुस्तक में लिखते हैं कि किसी भी प्रकार की लंबे समय से चली आ रही जोड़ों की सूजन तथा प्रसव के गर्भाशय की असामान्य सूजन को उतारने में र्निगुण्डी पत्र चमत्कारी भूमिका निभाते हैं।
ताजे पत्तियों को मिट्टी के पात्र में रखकर आग पर गर्म कर उसे लगाने से अथवा पत्तियों को कुचलकर शोथ वेदना वाले स्थानों पर लगाने से तुरंत लाभ होता है, ऐसा डॉ. नादकर्णी का मत है। जड़ी की छाल के टिंक्चर का प्रयोग भी रुमेटिज्म या रुमेंटौइड आर्थराइटिस के लिए बताया गया है।
यूनानी चिकित्सापद्धति में निर्गुण्डी पत्र वर्गे संभालू और फल तुख्मे संभालू के नाम से प्रसिद्ध है । इन्हें दूसरे दर्ज में गर्म और खुष्क मानकर सूजन उतारने वाला तथा दर्द निवारक बताया गया है।
होम्योपैथी में निर्गुण्डी के श्वेत पुष्प वाली प्रजाति का टिंक्चर प्रयुक्त करते हैं । डॉ. विलियम बोरिक ने इसे इण्डियन आर्निका नाम दिया है। उसके अनुसार दवा जोड़ों के दर्द में विशेष लाभकारी है।
रासायनिक संरचना : इस औषधि पर विस्तृत कार्य हुआ है। अनुसंधान के बाद पाया गया है कि ताजी पत्तियों का भाव आसव करने पर उसमें जल में घुलनशील एक हल्के पीले रंग का तेल मिलता है। उसकी मात्रा पत्रों में 0.04 से 0.07 प्रतिशत तक होती है। जल से कुछ ही हल्के इस तेल में 22.5 प्रतिशत एल्डीहाईड, 15 प्रतिशत फीनौल के घटक तथा 10 प्रतिशत सिनीऑल पाया गया है। दो एल्केलाइड भी पाए गए हैं, जिन्हें निशण्डीन और हाइड्रोकोटीलान नाम दिया गया है। इस पौधे की ताजी पत्तियों में प्रति सौ ग्राम 150 मिलीग्राम विटामिन सी और 3500 माइक्रोग्राम कैरोटीन होते हैं।
फ्लेवॉन और ग्लाइकोसाइड जैसे जैविक रूप से समर्थ सक्रिय घटक निर्गुण्डी पत्रों में प्रचुर संख्या में पाए गए हैं। टैनिक अम्ल, हाइड्रौक्सी बैंजौइक अम्ल, हाइड्रौक्सी आइसोथेलिक अम्ल भी इसमें पाए जाते हैं।
पत्रों का सक्रिय घटक रंगहीन उड़नशील तेल, एल्केलाइड्स, विटामिन्स ही वे सक्रिय तत्व हैं जो औषधीय प्रयोजन की दृष्टि से उपयोगी हैं वे इस सर्वोपलब्ध तथाकथित वाइल्ड औषधि को उपयोगी सिद्ध करते हैं।
आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग निष्कर्ष :
वैज्ञानिक प्रयोगों में यह पाया गया है कि निर्गुण्डी पत्रों का क्वाथ प्रायोगिक जंतुओं के जोड़ों में कृत्रिम रूप से उत्पन्न की गई सूजन (गठिया) की प्रगति रोककर यथास्थिति लाता है। फलों का चूर्ण भी दर्द निवारक पाया गया है।
विभिन्न वैज्ञानिकों ने इसके बाह्य तथा आंतरिक प्रयोगों से पाया है कि यह नाड़ी तंतु जाल को सशक्त बनाता है, अपने वेदना निवारक गुण से मांस पेशियों, नाड़ियों तथा संधियों के दर्द को मिटाता है। मूलतः इसके पत्रों का बाह्य प्रयोग अत्यंत लाभकारी होता है, ऐसा आर्युवेद के विद्वानों का अनुभव है।
ग्राह्य अंग : वैसे तो इस पौधे के सभी भाग औषधीय गुणों से युक्त है, परन्तु पत्तियाँ और जड़ अपेक्षाकृत अधिक प्रयुक्त किए जाते हैं । छाल तथा पंचांग चूर्ण भी प्रयुक्त होते हैं।
मात्रा : पत्र स्वरस- 10 से 20 ग्राम (2 से 4 चम्मच)। मूल की छाल का चूर्ण- 1 से 3 ग्राम। बीज चूर्ण अथवा फल चूर्ण-3 से 6 ग्राम।
निर्धारणानुसार उपयोग : सिर दर्द आदि में पत्तों के स्वरस का लेप सिर पर करने से तुरंत आराम मिलता है, ऐसा आर. एन.खोरी का मत है। कटि प्रदेश (सेक्रोपेल्विक संधि) की वात सूजन में निर्गुण्डी पत्र स्वरस का पान 10 से 20 ग्राम मात्रा में करते हैं। ऐसा अनुभव है कि सियाटिका/साइटिका-Sciatica, स्लिप्ड डिस्क, लम्बेगं, मांस पेशियों को झटका लगने के कारण आई सूजन में निर्गुण्डी त्वक चूर्ण या पत्र का क्वाथ कम अग्नि पर पकाकर देने से (20 ग्राम दिन में 3 बार) कष्ट तुरंत समाप्त हो जाता है। निर्गुण्डी स्वरस 3 तोला दिन में 3 बार शहद के साथ देने से टिटनेस जैसे रोग में शीघ्र लाभ पहुँचते देखा गया है।
निर्गुण्डी पत्र क्वाथ तथा पंचांग क्वाथ की भाप का प्रयोग रह्यूमेटिक रोगों में किया जाता है। गठिया चाहे वह जीवाणु संक्रमण की प्रतिक्रिया जन्य हो अथवा वार्धक्य की परिणति, सूजन उतारने, दर्द निवारण में निर्गुण्डी त्वक चूर्ण, पत्र चूर्ण या ताजे स्वरस से तुरंत लाभ मिलता है।
अन्य उपयोग : मुँह के छालों में इसके क्वाथ से कुल्ला कराते हैं। अण्डशोथ में इसके पत्रों को गरम करके बाँधते हैं। कान में दर्द में भी पत्र स्वरस लाभ पहुँचाता है। यह लीवर की सूजन तथा कृमियों को मारने के लिए भी प्रयुक्त होती है। विविध ज्वरों में अनुपान रूप में प्रयुक्त करके इसके स्वरस को ज्वरघ्न के रूप में भी प्रयुक्त किया गया है।
स्रोत : http://hindi.awgp.org/gayatri/sanskritik_dharohar/bharat_ajastra_anudan/aurved/jadibutiyon_dwara_chikitsa/nirgundi
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Date: May 19, 2012
Author: Herbaldealers
Category: Uncategorized
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यूँ तो हमारे आसपास कई औषधीय पौधे पाए जाते हैं। लेकिन शायद पहचान और जानकारी न होने के कारण हम उनके गुणों से अनजान होते हैं। ऐसा ही एक औषधीय पौधा है-जिसे निर्गुन्डी कहते हैं। निर्गुन्डी शरीर की रोगों से रक्षा करता है। इसे वात से सम्बंधित बीमारियों में रामबाण औषधी माना जाता है।
छह से बारह फुट उंचा इसका पौधा, झाड़ीनुमा सूक्ष्म रोमों से ढका रहता है। पत्तियों की पहचान किनारों से की जा सकती है। इसके फल छोटे, गोल एवं सफेद होते हैं। आइए अब इसके औषधीय प्रयोग से हम आपको रु-ब-रु कराते हैं।
यह कफ वातशामक औषधि के रूप में जानी जाती है ,जिसे श्रेष्ठ वेदनास्थापन/दर्द निवारक अर्थात दर्द को कम करने वाला माना गया है।
- यह घाव को विसंक्रमित करने और भरनेवाले गुणों से युक्त होता है।
- इसके पत्तों को कूटकर टिकिया बनाकर यदि पीड़ा वाले जगह पर बाँध दिया जाय तो यह दर्द को तुरंत कम कर देता है।
- इसकी पत्तियों का काढ़ा बनाकर कुल्ला करने मात्र से गले का दर्द दूर हो जाता है।
- यदि किसी को मुंह में छाले हो गए हों या गले में किसी प्रकार की सूजन हो, तो हल्के से गुनगुने पानी में निर्गुन्डी तेल एवं थोड़ा सा नमक मिलाकर गरारे कराने से लाभ मिलता है।
- यदि होंठ कटे हों तो भी केवल इसके तेल को लगाने से लाभ मिल जाता है।
- किसी भी प्रकार का कान दर्द हो तो निर्गुन्डी की पत्तियों के तेल को शहद के साथ मिलाकर एक से दो बूँद की मात्रा में कानों में डाल दें ,निश्चित लाभ मिलेगा।
- धीमी आंच पर निर्गुन्डी के पत्तों को लगभग आधा लीटर पानी में पकाकर चौथाई शेष रहने पर 10-20 मिली की मात्रा में दिन में दो से तीन बार खाली पेट देना सायटिका/साइटिका-Sciatica जैसी स्थिति में भी प्रभावी होता है।
- निर्गुन्डी के चूर्ण को शुंठी/सोंठ के चूर्ण के साथ बराबर मात्रा में मिलाकर लेना सेक्सुअल एक्टिविटी को बढ़ाने में मददगार होता है।
- मांसपेशियों की सूजन में निर्गुन्डी की छाल का चूर्ण पांच ग्राम मात्रा में देना लाभकारी होता है।
- सर्दी, जुकाम और बुखार में भी इसके तेल की मालिश रोगी को आराम देती है।
- शरीर के किसी भी हिस्से में होनेवाली गांठ जो प्राय: बंद हो तो केवल इसके पत्तों को बांधने से बंद गाँठ खुल जाती है और अन्दर स्थित मवाद बाहर आ जाता है।
- निर्गुन्डी को यदि शिलाजीत के साथ प्रयोग किया जाए तो इसका प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है।
- किसी भी प्रकार का सरदर्द हो या जोड़ों की हो सूजन, इसके पत्तों को गरम कर बांध कर उपनाह/पुल्टिस/Chloasma देने से सूजन और दर्द में कमी आती है। संधिवात, आमवात, संधिशोथ या अन्य संधियों से सम्बंधित विकृतियों में निर्गुन्डी के पत्तों से बनाए गए तेल की मालिश से भी लाभ मिलता है।
स्रोत :https://herbaldealer.wordpress.com/2012/05/19/nirgundi-%E0%A4%AA%E0%A5%8C%E0%A4%A7%E0%A4%BE-%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%82-%E0%A4%AF%E0%A5%87-%E0%A4%B9%E0%A5%88-%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%B9%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%A8-%E0%A4%AA/
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June 18, 2015 धर्मालय संचालक
निर्गुण्डी-इसका संस्कृत नाम इन्द्राणी है। इसे संभालू भी कहा जाता है। अंग्रेजी में इसे इंडियन प्रिवेट कहते है। इसका लेटिन नाम विटेक्स नेगुएडो। तंत्र ग्रंथों में इसकी बहुत महिमा गाई गयी है। आयुर्वेद में आधुनिक शोध कर्ताओं ने इसे सुजन नष्ट करने वाला, खून साफ़ करने वाला, वात रोग को दूर करने वाला, गठिया, सुजाक एवं नेत्र रोगों को दूर करने वाला बताया है।
प्राचीन काल में इसे सांप-बिच्छु के जहर को नष्ट करने के लिए भू प्रयुक्त किया जाता था। परन्तु आधुनिक युग में इस पर विवाद है। यूनानी चिकित्सा में इसे पागल कुत्ते के विष को नष्ट करने के लिए प्रयोग किया जाता है और इसे काम शक्ति बढ़ाने वाला माना जाता है। इसका तांत्रिक कायाकल्प प्रयोग इस प्रकार है –
500 ग्राम निर्गुण्डी के जड़ का चूर्ण एवं 1 किलो शहद, बच का चूर्ण, मुंडी का चूर्ण, नीम के जड़ के छाल का चूर्ण, गुडुची का चूर्ण, भृंगराज चूर्ण-100-100 ग्राम इसमें डालें और इसे पहले बताये गये तरीके से ढक्कन बंद करके मिट्टी में एक महीने तक दबा दें। एक महीने बाद इसका 10 ग्राम , 20 ग्राम घी के साथ सेवन करके ऊपर से दूध पिए। केवल दूध भात खाए।
खट्टा और नमक वर्जित है। यह आश्चर्यजनक रूप से शरीर की क्रिया को प्रभावित करता है और सम्पूर्ण रूप से उसमें नया तेज भर देता है। तन्त्र ग्रंथों में कहा गया है कि इस प्रकार प्रयोग करते हुए हर एक वर्ष में तीन महिना 5 साल तक करें, तो मनुष्य 300 साल तक जिन्दा रह सकता है। इसका तो नहीं कहा जा सकता, परन्तु यह एक रसायन टॉनिक है और आश्चर्यजनक लाभ देता है। ब्रिटिश काल में इस पर अनेक शोध हुए थे और ये सत्य पाया गया था।
स्रोत : http://dharmalay.com/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A5%80-%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%B2/
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महामीडिया
2015-10-09, 01:10:24

निर्गुण्डी के पत्ते कई रागों की रामबाण दवा है।
- निर्गुण्डी के पत्तों को पीसकर लेप बना लें। इस लेप को चोट या सूजन पर लेप करने से या चोट, सूजन वाले अंग पर इसकी पट्टी बांधने से दर्द में आराम मिलता है और घाव जल्दी ठीक हो जाता है।
- निर्गुण्डी के पत्तों के 5 से 10 बूंदों को दौरे के समय नाक में डालने से मिर्गी में आराम होता है।
- निर्गुण्डी के काढ़े से सिर को धोना चाहिए।
- निर्गुण्डी के पत्तों के रस को शुद्ध तेल में, शहद के साथ मिलाकर 1 से 2 बूंद कान में डालने से कान के रोग में लाभ मिलता है।
- 12 से 24 मिलीलीटर निर्गुण्डी के पत्तों के रस को शुद्ध दूध के साथ दिन में 2 बार लेने से खांसी दूर हो जाती है। 14 से 28 मिलीलीटर निर्गुण्डी के पत्तों का रस दिन में 3 बार सेवन करें। निर्गुण्डी की जड़ों के पीसकर नाक में डालना चाहिए।
- निर्गुण्डी की जड़ को बालक के गले में लटकाने से दांत जल्दी निकल जाते हैं। निर्गुण्डी (सम्भालु) की जड़ के छोटे-छोटे टुकड़े को काले या लाल धागे में माला बनाकर बच्चे के गले में बांध दें।
- निर्गुण्डी के पत्तों का रस या निर्गुण्डी के पत्तों का 10 मिलीलीटर काढ़ा, 1 ग्राम पीपल के चूर्ण के साथ मिलाकर देने से कफज्वर और फेफड़ों की सूजन कम होती है।
- निर्गुण्डी के पत्तों के 30-40 मिलीलीटर काढ़े की एक मात्रा में लगभग आधा ग्राम कालीमिर्च का चूर्ण मिलाकर पीने से कफ के बुखार में आराम होता है।
- निर्गुण्डी के तेल में अजवाइन और लहसुन की एक से दो कली डाल दें तथा तेल हल्का गुनगुना करके सर्दी के कारण होने वाले बुखार, न्यूमोनिया, छाती में जकड़न होने पर इस बने तेल की मालिश करने से लाभ होता है।
- निर्गुण्डी का इस्तेमाल करने से सूतिका का बुखार में लाभ मिलता है तथा गर्भाशय का संकोचन होता और आंतरिक सूजन मिट जाती है।
- निर्गुण्डी को पीसकर नाभि, बस्ति (नाभि के नीचे का भाग) और योनि पर लेप करने से प्रसव आसानी से होता है।
- निर्गुण्डी के पत्तों का काढ़ा बनाकर सूजाक की पहली अवस्था में ले सकते हैं। यदि रोगी का पेशाब बन्द हो गया हो तो उसमें 20 ग्राम निर्गुण्डी के पत्तों को 400 मिलीलीटर पानी में उबाल लें। जब चौथाई काढ़ा शेष बचे तो इसे उतारकर ठंड़ा कर लें। इस काढे़ को 10-20 मिलीलीटर प्रतिदिन सुबह, दोपहर और शाम पिलाने से पेशाब आने लगता है।
- सियाटिका, स्लिपडिस्क और मांसपेशियों को झटका लगने के कारण सूजन हो तो निर्गुण्डी की छाल का 5 ग्राम चूर्ण या पत्तों के काढ़े को धीमी आग में पकाकर 20 मिलीलीटर की मात्रा में दिन में 3 बार देने से लाभ मिलता है।
- निर्गुण्डी के पत्तों से बनाये हुए तेल को लगाने से पुराने से पुराना घाव भरने लगता है। निर्गुण्डी की जड़ और पत्तों से निकाले हुए तेल को लगाने से दुष्ट घाव, पामा, खुजली और विस्फोटक (चेचक) आदि से उत्पन्न घाव ठीक हो जाता है।
साभार : http://mahamediaonline.com/newsDetailshindi.jsp?Id=23346
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