यकृत वृद्धि (Liver Growth)
किशोरावस्था में प्रकृति विरुद्ध आहार सेवन करने से यकृत (जिगर) पर हानिकारक प्रभाव पड़ने से यकृत वृद्धि होती है। यकृत वृद्धि से रोगी को बहुत हानि होती है। शरीर में रक्त का निर्माण नहीं होता है और रोगी प्रतिदिन निर्बल हो जात है। यकृति वृद्धि रोगी के लिए प्राणघातक हो सकती है।
उत्पत्तिः
- अनियमित समय पर भोजन करने, भोजन में गरिष्ठ व उष्ण मिर्च-समाले व अम्ल रस से बने खाद्य पदार्थों का अधिक सेवन करने से पाचन क्रिया विकृत होने पर विकृति होती है।
- हर समय कुछ-न-कुछ खाते रहने की बुरी आदत यकृत को बहुत हानि पहुंचाती है।
- अधिक शराब पीने वाले स्त्री-पुरुष का यकृत भी अधिक विकृति होता है।
- दूषित जल पीने व दूषित भोजन करने से अधिक यकृत विकृति होती है।
- घी, तेल आदि से बने खाद्य से बने खाद्य पदार्थ क्रिया को विकृति करके यकृत में शोध की उत्पत्ति करते है।
- अधिक उष्ण व अम्लीय खाद्य पदार्थो के सेवन से यकृत को बहुत हानि पहुंचती है और यकृत में शोध की उत्पत्ति होती है।
- कुछ संक्रामक रोगों के कारण यकृत वृद्धि होती है।
- मलेरिया रोग में यकृत को हानि होती है। मलेरिया रोग में रक्त दूषित होने से यकृत विकृति होती है।
- आंत्रिक ज्वर में यकृत वृद्धि अधिक होती है।
लक्षण :
- यकृत में शोध होने से यकृत को दबाकर देखने पर पीड़ा होती है।
- यकृत वृद्धि में चिकित्सा में विलम्ब होने व भोजन में बदपरहेजी करने से यकृत को अधिक हानि पहुंचती है और प्राणघातक स्थिति बन जाती है।
- यकृत वृद्धि में रोगी हल्के ज्वर से पीड़ित रहता है।
- यकृत वृद्धि के चलते रोगी को कभी कोष्ठबद्धता होती है तो कभी अतिसार।
- रोगी अजीर्ण रोग से पीड़ित होता है।
- वमन विकृति भी हो सकती है।
- यकृत की विकृति पीलिया रोग की उत्पत्ति भी कर देती है।
- यकृत वृद्धि से पीड़ित रोगियों में प्लीहा वृद्धि भी होती है।
- अर्श रोग व जलोदर की उत्पत्ति भी यकृत वृद्धि के कारण हो सकती है।
- यकृत वृद्धि से पीड़ित रोगी शारीरिक रूप् से बहुत निर्बल हो जाता है। उसकी पाचन शक्ति बहुत क्षीण हो जाती है। कुछ रोगी उदर शूल से अधिक पीड़ित होते हैं।
क्या खाएं?
- * यकृत वृद्धि में रोगी को सेब व उसका रस पिला सकते हैं।
- * जमुन के कोमल पत्तों का अर्क 5 ग्राम मात्रा में 4-5 दिन तक सेवन करने से बहुत लाभ होता है।
- * यकृत वृद्धि में गोमूत्र कपड़े द्वारा दो बार छानकर 20-20 ग्राम मात्रा में *सुबह-शाम पीने से बहुत लाभ होता है।
- * मूली और मकोय का 20-20 ग्राम रस मिलाकर पीने से लाभ होता है।
- * हरी मकोय का अर्क, गुलाब के फूल 20 ग्राम और अमलतास का गूदा 20 * ग्राम, सभी को एक साथ पीसकर यकृत के ऊपर लेप करने से लाभ होता है।
- * रोगी को अनार, जामुन, लीची आदि फल खिलाएं।
- * पपीता खाने से यकृत वृद्धि में बहुत लाभ होता है।
- * सोंठ, धनिया व काला नमक को कूट-पीसकर चूर्ण बना लें। 2-2 ग्राम चूर्ण दिन में दो-तीन बार सेवन कराएं।
- * यकृत वृद्धि में तक्र (मट्ठे) के सेवन से बहुत लाभ होता है, लेकिन तक्र से घी की चिकनई निकाल लेनी चाहिए।
- * यकृत वृद्धि में 25 ग्राम करेले का रस जल मिलाकर पिलाएं।
- * नरियल का जल पीने से यकृत वृद्धि में लाभ होता है।
क्या न खाएं?
- * यकृत वृद्धि में उष्ण मिर्च-मसालों व अम्लीय रसों से बने खाद्य पदार्थो का सेवन न कराएं।
- * घी, तेल, मक्खन, अंडे, मांस, मछली का सेवन न करें।
- * गरिष्ठ खद्य पदार्थ का सेवन न करें।
- * अरबी, कचालू, उड़द की दाल, मिठाई, खोए का सेवन न करें।
- * चाय, कॉफी और शराब का सेवन न करें।
- * रोगी को बाजार के चटपटे व्यंजनों, छोले-भठूरे, गोल-गप्पे, आलू की टिकिया समोसे आदि नहीं खाने चाहिए।
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यकृत व्याधियों के उपचार में कारगर औषधीय वनस्पतियां
पारम्परिक रूप से यकृत व्याधियों का उपचार आयुर्वेदिक औषधियों द्वारा ही किया जाता है जो वनस्पतियों से प्राप्त की जाती हैं। यकृत व्याधियों में कारगर बहुत से ऐसे औषधीय वनस्पतियों की प्रजातियां हमारे पास-पड़ोस में उगती हैं जिनका देसी औषधि के रूप में उपयोग कर हम यकृत व्याधियों से मुक्ति पा सकते हैं।
यकृत व्याधियों के उपचार में कारगर औषधीय वनस्पतियों की कुछ महत्वपूर्ण प्रजातियां
-डॉ. अरविन्द सिंह
यकृत मानव शरीर का एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण अंग है जिसका प्रमुख कार्य पाचन कार्यों में सहायता प्रदान करना होता है। वसा पाचन के लिए आवश्यक पित्त का स्राव यकृत द्वारा ही होता है। इसके अतिरिक्त यकृत संचय अंग का भी कार्य करता है। विटामिन्स, खनिज, वसा आदि का संचय यकृत में होता है। यकृत को मानव शरीर की विशालतम ग्रन्थि माना जाता है।
पीलिया (कामला), हिपैटाइटिस, यकृत एबसेस्, यकृत सिरोसिस एवं यकृत परिवर्धन यकृत की प्रमुख व्याधियाँ हैं। हिपैटाइटिस (Hepatitis) व्याधि के तीन प्रकार होते हैं। जिन्हें हिपैटाइटिस ए (Hepatitis A), हिपैटाइटिस बी (Hepatitis B) तथा हिपैटाइटिस डी (Hepatitis D) के नाम से जाना जाता है। इन तीनों में हिपैटाइटिस बी यकृत की सबसे घातक व्याधि होती है। जिसे सिरम हिपैटाइटिस (Serum Hepatitis) भी कहा जाता है।
उपर्युक्त व्याधियों में पीलिया तथा हिपैटाइटिस यकृत की सबसे आम व्याधियाँ हैं, जो आमतौर से दूषित जल से फैलती हैं और समय से उपचार न होने पर जानलेवा साबित होती हैं। हालॉकि हिपैटाइटिस बी के घातक स्वरूप को देखते हुए इस व्याधि के विरुद्ध आनुवंशिक अभियान्त्रिकी (द्वितीय पीढ़ी टीका) की मदद से टीका भी विकसित किया गया है।
एलोपैथ चिकित्सा के लाख तरक्की के बावजूद भी आज तक यकृत व्याधियों के उपचार हेतु एलोपैथ में कारगर औषधियों का अभाव है। यकृत व्याधियों के उपचार में मुख्यतः आयुर्वेदिक औषधियों का ही उपयोग होता है। ये औषधियां आमतौर से पौधों के विशेष भाग अथवा सम्पूर्ण पौधे से प्राप्त की जाती हैं।
देसी औषधि के रूप में यकृत बिमारियों के उपचार में कारगर कुछ ऐसी महत्वपूर्ण वनस्पतियों की प्रजातियां जो ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में हमारे पास-पड़ोस में उगते हुये पायी जाती हैं का वर्णन निम्नलिखित है:-
पुनर्नवा: यह आमतौर से जमीन पर रेंगने वाला बहुवर्षीय शाकीय वनस्पति है जो पुष्पीय पौधों के निक्टाजिनेसी (Nyctaginaceae) कुल का सदस्य है। पुनर्नवा का वैज्ञानिक नाम बोरहेविया डिफ्यूजा (Boerhavia diffusa) है। इसकी तने की लम्बाई 60-90 सेमी. तक होती है। जड़े मोटी तथा मृदा में काफी गहराई तक पायी जाती हैं।
यह वनस्पति की प्रजाति आमतौर से घास के मैदान, सड़क के किनारे, पथरीली भूमि, आवासीय परिसर, बेकार भूमि आदि जगहों पर खरपतवार के रूप में उगते हुए पायी जाती है। वनस्पति के पुष्प लाल रंग के होते हैं। पुनर्नवा का प्रजनन बीज द्वारा होता है। पुनर्नवा के औषधीय गुणों का वर्णन प्राचीन ग्रन्थ अथर्ववेद में किया गया है। औषधीय गुण जड़ों में पाया जाता है। ताजी जड़ों को पीसकर अथवा सुखे जड़ के चूर्ण को शहद से सेवन पर पीलिया तथा हिपैटाइटिस ए के उपचार में सहायता मिलती है।
कालमेध: कालमेध एकवर्षीय शाकीय वनस्पति है जो पुष्पीय पौधों के एकेन्थेसी (Acanthaceae) कुल का सदस्य है। इसका वैज्ञानिक नाम एण्ड्रोगेफिस पैनिकुलेटा (Andrographis paniculata) है। कालमेध आमतौर से उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वनों में पाया जाता है। शहरी क्षेत्रों में इसे बाग-बगीचों में सजावटी पौधे के रूप में भी उगाया जाता है।
कालमेध पौधे की ऊँचाई 30-90 सेमी. तक होती है। पुष्प छोटे तथा गुलाबी रंग के होते हैं। कालमेध में प्रजनन बीज द्वारा होता है। कालमेध के औषधीय गुणों का वर्णन प्राचीन चिकित्सा ग्रन्थ सारंगधर संहिता में विस्तार से किया गया है। औषधीय गुण सम्पूर्ण पौधे में विद्यमान होते हैं। ताजी पत्तियों का रस यकृत बिमारियों जैसे पीलिया तथा हिपैटाइटिस ए, बी तथा डी के उपचार में अत्यन्त ही कारगर होता है।
भूई आँवला: यह फाइलेन्थेसी (Phyllanthaceae) कुल की एकवर्षीय शाकीय वनस्पति है जो कि वर्षा ऋतु में प्रकट होती है। इसका वैज्ञानिक नाम फाइलेन्थस निरूराई (Phyllanthus niruri) है। इसे भूई आमलकी नाम से भी जाना जाता है। पौधे की ऊँचाई 30 सेमी. तक होती है। टहनियाँ आमतौर से पौधे के मुख्य तने के आधार से निकलती हैं।
भूई आँवला आमतौर से घास के मैदान, जंगल, बाग-बगीचों तथा कृषि भूमि में खरपतवार के रूप में उगते हुए पाया जाता है। फाइलेन्थीन (Phyllanthin) नामक रसायन के उपस्थिति के कारण औषधीय गुण पत्तियों में पाये जाते हैं। पत्तियों का रस अथवा अर्क सेवन से हिपैटाइटिस बी जैसी घातक यकृत व्याधि के उपचार में सहायता मिलती है।
गिलोय: गिलोय दूसरे वृक्षों के सहारे चढ़ने वाली सदाबहार झाड़ीनुमा वनस्पति है जो पुष्पीय वनस्पतियों के मेनीस्परमेसी (Menispermaceae) कुल की सदस्य है। इसका वैज्ञानिक नाम टीनोस्पोरा कार्डिफोलिा (Tinospora cordifolia) है। इसे मधुपर्णी, गूडूची, जीवन्तिका तथा अमृता आदि नामों से भी जाना जाता है। यह वनस्पति आमतौर से सदाबहार वर्षा वनों में बहुतायत में पायी जाती है।
गिलोय को आकर्षक तथा सदाबहार प्रवृत्ति के कारण शहरी क्षेत्रों के बाग-बगीचों में सजावटी पौधे के रूप में भी उगाया जाता है। पुष्प छोटे तथा पीले रंग के होते हैं। गिलोय के औषधीय गुणों का वर्णन अथर्ववेद में किया गया है। औषधीय गुण सम्पूर्ण पौधे में पाया जाता है। ताजे पौधे का रस पीलिया के उपचार में अत्यन्त ही प्रभावी होता है।
मकोय: यह एकवर्षीय शाकीय वनस्पति है जो पुष्पीय वनस्पतियों के सोलेनेसी (Solanaceae) कुल की सदस्य है। मकोय का वैज्ञानिक नाम सोलेनम नाईग्रम (Solanum nigrum) है। यह वनस्पति सम्पूर्ण भारत में पायी जाती है। मकोय वनस्पति आमतौर से परती भूमि, कृषि भूमि, घास के मैदान, आवासीय परिसर तथा बाग-बगीचों में खरपतवार के रूप में उगती है।
मकोय की ऊँचाई 30-50 सेमी. तक होती है। पौधे की पत्तियां तथा तना काफी नाजुक होता है। मकोय का पौधा जलजमाव के प्रति संवेदनशील होता है। पुष्प सफेद रंग के होते हैं। फल पकने के बाद काले रंग के तथा रसीले हो जाते हैं। मकोय का प्रजनन बीज द्वारा होता है। औषधीय गुण सम्पूर्ण वनस्पति में पाया जाता है। पौधे का अर्क पीलिया के उपचार में अत्यन्त ही सहायक होता है।
भृंगराज: पुष्पीय पौधों के एस्टेरेसी (Asteracea) कुल का यह एकवर्षीय शाकीय वनस्पति आमतौर से सड़क के किनारे, आवासीय परिसर तथा पथरीली जमीन में खरपतवार के रूप में उगती है। भृंगराज का वैज्ञानिक नाम इकलिप्टा एल्बा (Eclipta alba)है। पौधे की ऊँचाई लगभग 5-15 सेमी. तक होती है।
भृंगराज की पत्तियाँ साधारण तथा गहरे हरे रंग की होती हैं एवं पुष्प सफेद होते हैं। भृंगराज का प्रजनन बीज द्वारा होता है। औषधीय गुण पत्तियों में पाया जाता है। पत्तियों का रस यकृत सम्बन्धी बिमारियों विशेषकर हिपैटाइटिस ए तथा पीलिया में कारगर होता है।
हर्रा: यह एक पर्णपाती वृक्ष की प्रजाति है जो आमतौर से उष्णकटिबन्धीय पर्णपाती वनों का एक प्रमुख घटक होती है। इसका वैज्ञानिक नामटर्मिनेलिया चेबुला (Terminalia chebula) है। हर्रा को ‘हरीतकी’ तथा ‘हरड’ नामों से भी जाना जाता है। वृक्ष की छाल गहरे-भूरे रंग की होती है। यह वृक्ष की प्रजाति कामब्रीटेसी (Combretaceae) कुल की सदस्य है। वृक्ष की लम्बाई 30 मीटर तक होती है।
हर्रा के औषधीय महत्व तथा अन्य उपयोग को देखते हुए इसके वृक्ष का रोपण ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों के बाग-बगीचों में किया जाता है। पौधे के पुष्प सफेद अथवा पीले रंग के होते हैं तथा अत्यंत ही सुगन्धित होते हैं। हर्रा वनस्पति के औषधीय गुणों का वर्णन प्राचीन ग्रन्थ अथर्ववेद में किया गया है। औषधीय गुण आमतौर से फल में पाये जाते हैं। फल का गूदा, हिपैटाइटिस डी, पीलिया, यकृत एबसेस् तथा यकृत परिवर्धन के उपचार में सहायक होता है।
निष्कर्ष: यकृत व्याधियाँ विशेषकर पीलिया तथा हिपैटाइटिस दूषित पेयजल के उपयोग के कारण देश के ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में तेजी से फैल रही है। समय से उपचार न होने के कारण ये व्याधियाँ अक्सर जानलेवा साबित होती हैं। एलोपैथ में इन व्याधियों के सीमित उपचार के कारण आयुर्वेद पर आधारित देसी चिकित्सा पद्धति का महत्व बढ़ जाता है, जिसमें उपर्युक्त पौधों के उपयोग से बगैर किसी पार्श्व प्रभाव के यकृत सम्बन्धी व्याधियों से निजात पाया जा सकता है।
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लेखक परिचय:

डॉ. अरविंद सिंह वनस्पति विज्ञान विषय से एम.एस-सी. और पी-एच.डी. हैं। आपकी विशेषज्ञता का क्षेत्र पारिस्थितिक विज्ञान है। आप एक समर्पित शोधकर्ता हैं और राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की शोध पत्रिकाओं में अब तक आपके 4 दर्जन से अधिक शोधपत्र प्रकाशित हो चुके हैं। खनन गतिविधियों से प्रभावित भूमि का पुनरूत्थान आपके शोध का प्रमुख विषय है। इसके अतिरिक्त आपने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मुख्य परिसर की वनस्पतियों पर भी अनुसंधान किया है। आपके अंग्रेज़ी में लिखे विज्ञान विषयक आलेख '
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