स्त्रीत्व की परिभाषा एवं भूमिका
"आधुनिकता की दौड़ में स्त्री को घर में सम्मान न देकर उसे बाहर खदेड़ा जा रहा है और उसके लिए सम्मान खोजा जा रहा है। जिसमें अभी तक के सभी समाज असफल रहे हैं और होते रहेंगे। "
लेखक : Ram bansal
संभवतः स्त्री स्वातंत्र्य के पक्षधर मेरे इस मत से सहमत न होंगे कि स्त्री का स्थान घर के अन्दर होता है। मेरे इस सुविचारित मत के अनेक कारण हैं-
स्त्री की सुरक्षा,
बच्चों का लालन-पालन,
परिवार का स्वास्थ,
आदि आदि.
भारत की परम्परा के अनुसार स्त्रियों के लिए-
पति की मैथुन-संगिनी बनाना,
घर में भोजन पकाना,
परिवार के सदस्यों एवं अतिथियों की सेवा-सुश्रुवा करना
तथा बच्चों को जन्म देना एवं
उनका समुचित लालन-पालन करना,
आदि कार्य निर्धारित थे।
ये सब कार्य सकुशल किये जाने पर स्त्री के लिए 18 घंटे प्रतिदिन की व्यस्तता की मांग करते हैं तथा एक सुसंस्कृत परिवार एवं देश के निर्माण के लिए अनिवार्य हैं। इन्ही के आधार पर स्त्रीत्व को परिभाषित किया जा सकता है तथा उसकी आधुनिक समाज में भूमिका निर्धारित की जा सकती है।
स्त्री का प्रथम एवं अनिवार्य गुण सौन्दर्य : इसमें किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि स्त्री सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति होती है। जिसके कारण पुरुष उसकी ओर आकर्षित होता है। स्त्री का यह पक्ष पशु एवं पक्षियों से भिन्न है, क्योंकि पशुओं में मैथुन केवल संतान उत्पत्ति के लिए होता है और वह भी तब जब मादा का शरीर इसके लिए तैयार हो। इनमें महत्व सौन्दर्य का न होकर मादा के शरीर की आवश्यकता का होता है। पक्षियों में नर-मादा आकर्षण के लिए सौन्दर्य का महत्व होता है, किन्तु यह सौन्दर्य मादा में न होकर नर पक्ष में होता है और वही मादा को आकृष्ट करता है।
अतः स्त्री का प्रथम एवं अनिवार्य गुण सौन्दर्य होता है जो स्त्री तथा पुरुष दोनों के चिर-कालिक आनंद का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्रोत होता है।
स्त्री का प्रथम एवं अनिवार्य गुण स्वास्थ्य : मैथुन संयोग का परिणाम संतानोत्पत्ति होता है, किन्तु यह सभी समय संभव नहीं होता, स्त्री का ऋतुकाल इसकी अनिवार्यता होती है। इस कार्य में स्त्री के शरीर का महत्व शिशु को केवल जन्म देने के लिए न होकर उसकी निरोगिता एवं उसके पोषण के लिए दूध प्रदान करना भी होता है। इन तीनों गुणकों के लिए यह आवश्यक होता है कि स्त्री पूरी तरह से-शारीरिक एवं मानसिक स्तरों पर-स्वस्थ हो। अतः स्त्री परिभाषा का यह दूसरा अवयव है, जिसका सम्बन्ध स्त्री के सौन्दर्य से भी होता है।
स्त्री का प्रथम एवं अनिवार्य गुण गृह-स्वामिनी बने रहना : मैथुन संयोग की सहगामिनी होने के कारण स्त्रीत्व का आभूषण लज्जा होती है, जिसके संरक्षण के लिए उसका अन्य पुरुषों की कुदृष्टि से बचे रहना आवश्यक होता है। यहाँ यह ध्यातत्व है कि पुरुष प्राकृत रूप से कामी होता है, क्योंकि उसकी कामना उसके शरीर की किसी काल-जनित स्थिति से निर्धारित नहीं होती है, जैसा कि स्त्रियों में होता है। इस कारण से पुरुष स्त्री सौन्दर्य-पान के लिए सदैव लालायित रहता है। जिस कारण से स्त्रियों को पुरुष समाज से बच कर रहना ही श्रेयस्कर होता है जो स्त्री के घर में बने रहने से ही स्वतः संभव हो जाता है।
अतः स्त्रीत्व का तीसरा अवयव उसका गृह-स्वामिनी बने रहना होता है।
भोजन पकाना तथा उसे सुपात्रों के समक्ष प्रस्तुत करना मानव जीवन की सर्वोच्च कोटि की कला है जो परिवार को स्वस्थ बनाए रखने के लिए आवश्यक होती है। इसका जनप्रिय सूत्र है 'मनोयोग से पकाइए तथा प्रेम से खिलाइए' किन्तु भोजन पकाने में मनोयोग के साथ-साथ पाक-कला का भी उतना ही महत्व होता है। भोजन परोसना केवल एक भौतिक क्रिया न होकर एक मानसिक क्रिया भी होती है, जिससे साधारण भोजन का स्वाद एवं पोषण-मान भी बहुगुणित हो जाता है। परिवार के सदस्यों, विशेषकर बच्चों का स्वास्थ भोजन पर ही निर्भर करता है जो स्वस्थ समाज एवं देश का निर्माण करता है। अतः, स्त्रीत्व परिभाषा का तीसरा अवयव पाक-कला एवं प्रस्तुति सिद्ध होता है, जिसके लिए स्त्री का गृह-स्वामिनी बने रहना आवश्यक होता है।
स्त्री में उपरोक्त गुण विद्यमान होने से वह प्राकृत रूप से सम्मान की पात्र बन जाती है, इसीलिए स्त्री को गृह-लक्ष्मी कहा जाता है। आधुनिकता की दौड़ में स्त्री को घर में सम्मान न देकर उसे बाहर खदेड़ा जा रहा है और उसके लिए सम्मान खोजा जा रहा है। जिसमें अभी तक के सभी समाज असफल रहे हैं और होते रहेंगे।
पाश्चात्य संस्कृतियों में स्त्री के काम-वासना के अयोग्य हो जाने पर उसका प्रायः परित्याग कर दिया जाता है। स्त्रियों को घर से बाहर निकाला था, उनके सम्मान की खोज में और वे पा रही हैं-तिरस्कार जीवन के अपराह्नों में। भारत भी इसी दौड़ में सम्मिलित हो रहा है। -शुक्रवार, 1 जनवरी 2010.
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